Monday, May 10, 2010

सामीएट्टन

एक संघगीत है- ’ तू संघ संघ जप मंत्र निजांत रात्र ’.. हमारे गुरुश्री सामीएट्टन इस गीतका साक्षात प्रतिरूप थे. आर.एस.एस. उनका ’ ब्लडग्रुप ’ था और कळरी यह था ’ श्वास ’.. दिनरात इन्ही दो विषयोंमें उनका चिन्तन, मनन चलता था.

संघ के वे तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक थे और कळरी की शिक्षा पारंपारिक पद्धती से अपने गुरू से प्राप्त की थी. वैसे वैद्यकीय विषय में उन्होंने कोई लौकिक शिक्षा नहीं पायी थी, लेकिन अपनी लगन से, गहन अध्ययन से, मूलगामी चिन्तन से उन्होंने उस विषय में भी बहुत उच्च स्थान प्राप्त किया था. अपने अनुभव के, अभ्यास के अधार पर वे किसी भी व्यक्ति का अचूक रोगनिदान तथा उसका कारन भी जान लेते थे. शारीरिक उपचार करते समय वे रुग्ण की मानसिकता को भी समझ लेते थे. शायद वे एक उत्कृष्ठ समुपदेशक भी बन सकते थे. रुग्ण के साथ गपशप करनेका उनका एक विशेष तरीका था. उसके मन की बात भी समझ लेते और अपने मन की बात भी उसे उतार देते थे. अनेक बार रुग्णोंके साथ बात करते करते उन्हे संघ भी समझाने का वे प्रयास करते थे.

उनका व्यक्तित्व अष्टावधानी था. उन दिनों कळरी में ही मसाज का काम भी चलता था. एकही समय वे रुग्णको मसाज करना और दूसरी तरफ़ नये विद्यार्थियों को कळरी के पाठ पढाना करते थे. उसी बीच कभी ओ.पी.डी. में पेशंट आता - जिसका हाथ या पैर टूटा हो - तो उसे भी ठीक करने स्वयं भाग निकलते थे, इतने में औषधशाला से भी उन्हें बुलावा आता था. सारे डिपार्टमेंट अकेलेही संभालते थे.

’ रुग्ण्सेवा ही ईश्वरसेवा ’ ऐसा उनका व्यवहार था. आये हुए रुग्णकी भोजन, निवास आदि व्यवस्थामें स्वयं ध्यान देते थे. १९८९-९० में जब मैं प्रथम बार बॅकपेन उपचार के लिये प्रमोदजी और रत्नाकरजी के साथ गया, तब मेरी दुर्बल शारीरिक स्थिती देखकर मेरे निवास की विशेष व्यवस्था की गयी थी. हमें कब, क्या चाहिये इस मनकी बात को वे बिना बताये समझ लेते थे और मॉंगने के पहलेही उसे पूरा कर देते थे. शायद उनका फेस रीडिंग भी अच्छा था.

उनकी और हमारी एक समान मैत्रीण थी वो याने ’चाय’. चायपान के साथ बहुतही उद्बोधक, मनोरंजक चर्चा चलती थी. संघ गीत भी उन्हें बहुत पसन्द थे. स्वयं अच्छे गाते थे. अपने दिनभर के सारे कष्ट, चिन्ताएं भूलनेका उनका सीधा मार्ग था - संघ गीत गायन ! हमसे अनेक मराठी गीत भी गा लेते थे.

उनका सारा जीवन कष्टमय ही था. पैसे की कभी चाह नहीं की. इस कारण आर्थिक स्थिति कमजोर रहती थी. परिवार का दायित्व भी था, बच्चे पढ रहे थे.. रुग्णोंको भी वे अपने घरका सदस्य जैसे ही मानते थे और वैसेही व्यवहार था. इस सारी सर्कस में उनको साथ देने उनके पीछे डटकर खडी थी हम सबकी शारदा अम्मा !

व्यक्तिगत जीवन में शारदा अम्मा की समर्थ साथ मिलने के कारण ही वे अपने काम में पूरी एकाग्रता से जुटे रहते थे. सुबह ५ बजे उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती और अविश्राम काम के बाद देर रात ध्यान, जप के बाद ही समाप्त हो जाती थी. उनकी कळरी में सैकडों विद्यार्थि सीखकर गये और शायद हजारों रुग्णों को उन्होंने उपचार किये. कई बरसों तक यह सारा निरन्तर चलता रहा.. वास्तव में यह एक उग्र तपश्चर्या ही थी. वे अपनी तपश्चर्यामें, साधनामें सदा लीन रहे.. इसी घोर तपस्या से उन्होंने हिन्दुस्थान कळरी संघम की नींव डाली जिसपर आज भव्य प्रासाद खडा है.

अपनी धर्मपत्नी के साथ-साथ बच्चे भी अच्छे, सुसंस्कारित होना, यह दुर्लभ रहता है. लेकिन लक्ष्मणजी, शत्रुजी और राधिका ने अपने पिताजी के सारे कौशल्य आत्मसात किये और अपने निजी अभ्यास से अब आगे बढ रहे है. उन दिनों हमारी दुभाषी रहती थी राजेश्वरी चेची. और दि ग्रेट काऊन्सेलर थी रेगम्मा ! अब इस टोली में डॉ. लालकृष्णन जी भी जुड गये और आयुर्वेद विभाग शुरू हुआ. बहुएं राजलक्ष्मी और शिमी शारदाम्मा के सारे काम संभल रही है.. इस नेक्स्ट जनरेशन को अपने सारे कौशल हस्तांतरित करते हुए अचानक ही हम सब को छोडकर सामीएट्टन ’ निज आनंद धाम ’ में चले गये.उनकी पावन स्मृतीमें मेरे कोटि-कोटि प्रणाम !

-- उदय(मुंबई), रत्नाकर(पुणे)

1 comment:

  1. अनेक महीनों/सालों बाद हिंदी पढने का अवसर मिला। मेरी हिंदी का तो स्वर्गवास हो चुका है ऐसा मुझे लग रहा था। लेकिन आपकी लेखन शैलीने और हिंदी की प्रविणताने हमें हिंदी भाषा की याद दिलायी। मैं इन महाशय को प्रत्यक्षरूप से नही जानती लेकिन आपने उनका व्यक्ति चित्रण इतने प्रभावशाली किय है की उनसे पहली बार मिलने का आनंद मिला॥ शतश: धन्यवाद॥

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